जनवरी की हाड़ कंपाने वाली ठंड में आमजन घर से निकलने में भी मुश्किलात का सामना करते हैं तथा ठंड से बचने के लिए जितने भी गर्म कपड़े पहन सकते है वे पहन के ही निकलते है परन्तु ऐसी स्थिति में भी प्रभु श्रीराम की नगरी अयोध्या में एक 80 साल के बूढ़े व्यक्ति, फटे-पुराने कपड़े पहने, दुर्घटना आदि का शिकार होने के चलते, टूटे-फूटे-बिखरे ,सड़ रहे, दुर्गंध बिखेर रहे, शवों को बटोर रहे होते है, उन्हें अंतिम संस्कार करने की जुगत करते अक्सर अकेले देखा जा सकता है। जी हां, हम बात कर रहे हैं अयोध्या जनपद के नगर क्षेत्र में खिड़की अली बेग मोहल्ले के रहने वाले तकरीबन 80 साल के मोहम्मद शरीफ जी (Mohamed Shariff) की, जिन्हें हर उम्र के लोग शरीफ चाचा (Sharif Chacha) कहते हैं। वर्ष 1992 से लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार कर रहे एवं आज भी सामान्य सा, फकीर सा जिंदगी जीने वाले निहायत ही नेकदिल, शरीफ चाचा वृद्धावस्था के सोपान से गुजर रहे है। खुदा के यह प्रतिनिधि, अपने कामों से अयोध्या जनपद में जीते जागते फरिश्ता बन गये है। न कोई स्वार्थ, न कोई ख्वाहिश, न कोई लोभ-लालच। शरीफ चाचा की इच्छा बस इतनी ही है कि है “परवरदिगार, किसी भी मनुष्य को मरने के बाद लावारिस हालत में इस दुनिया से रुखसत ना होना पड़े”।खासियत यह कि शरीफ चाचा अपना काम अपने बूते करते हैं, जबकि उनके पास खुद रहने के लिए घर नहीं है। गरीबी से जूझ रहे हैं, उम्र अधिक होने के कारण बीमार भी रहते हैं साथ ही आपकी पत्नी भी बीमार है। परिवार में कोई कमाने वाला नहीं है, आय का कोई भी पुख्ता स्रोत नहीं है।

शरीफ चाचा जिस बेटे में बुढ़ापे का सहारा देख रहे थे, वो साल 1992 में पड़ोस के जिले सुल्तानपुर गया था और अचानक लापता हो गया। बहुत ढूंढने के बाद भी काफी दिनों तक उसका कोई अता-पता नहीं चला। एक दिन अचानक पुलिस द्वारा यह सूचित किया गया कि पुलिस को एक लावारिस लाश मिली थी, जिसका कोई वारिस न मिलने के कारण अंतिम संस्कार कर दिया गया, पर उसके कपड़े सुरक्षित हैं। शरीफ चाचा ने जब उन कपडों को देखा तो आंखें बंद हों गई, सामने अंधेरा छाने लगा, जैसे सब कुछ समाप्त हो गया हो क्योंकि यह किसी और के नहीं बल्कि शरीफ चाचा के सुपुत्र के ही कपड़े थे। प्रत्येक पिता की तरह आप पर भी वज्रपात हुआ।आखिर हर पिता यही चाहता है कि उसकी अंतिम विदाई उसके पुत्र के कंधों पर हो। जिसे उसने अपने कंधों पर बैठाकर घुमाया था, खिलाया था उस पुत्र को अपने कंधों पर विदा करना पड़े, किसी भी पिता के लिए इससे बड़ा और आघात नहीं हो सकता। आखिरकार कोई भी कंधा इतना मजबूत नहीं होता जो इस भार को उठा सकें। शरीफ चाचा ने इस वज्राघात को बहुत कठिनाई से झेला। उस समय तो लगा अब सब खत्म हो गया है, जीने का मकसद बेमानी सा लगने लगा, उम्र बड़ी तेजी से ढलने लगी। अचानक एक दिन ख्याल आया कि मेरे बेटे की तरह अनेक इंसानों के मृत शरीर अस्पतालों, रेलवे लाइनों के किनारों पर अक्सर दिखाई-सुनाई पड़ते हैं क्यों ना उनकी सुध ली जाए। आपने वहीं से तय किया कि अब जब तक उनके शरीर में सांस रहेगी, तब तक किसी भी मनुष्य को लावारिस के रूप में विदाई नहीं होने देंगे। अंतिम संस्कार होना तो मानवता को ही नसीब में होता है तो भला क्यों ना कोई ऐसा काम किया जाए कि कोई धरती से लावारिस विदा ना हो। बस यहीं से शुरू हो गया आपका सफरनामा।

शुरुआती दिनों में आप साइकिल रिपेयर की छोटी सी दुकान चलाते थे जिससे परिवार का भरण-पोषण हो जाता था, लेकिन बढ़ती उम्र ने उसे बंद करने पर मजबूर कर दिया परंतु आपने इस परमार्थ के काम में बीमारी एवं गरीबी को कभी आड़े नहीं आने दिया। आप प्रत्येक सुबह निकल पड़ते हैं यह देखने के लिए कि कहीं किसी ऐसे व्यक्ति का देहावसान तो नहीं हो गया जिसका अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं है। आप दिन-रात अस्पताल, रेलवे स्टेशन और अन्य ऐसे स्थानों का भ्रमण करते रहते हैं, जहां लावारिस लाश मिलने की संभावना होती है और जैसे ही इस तरह की कोई जानकारी मिलती है तत्काल उस तक पहुंचते हैं एवं जानने की कोशिश करते हैं कि मृतक किस धर्म का है। उसका उसी धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करते हैं। लगातार आपके इस पुण्य कार्य को देखकर, अब कुछ लोग मदद करने लगे हैं जैसे कोई कफन की व्यवस्था कर देता है, कोई वाहन उपलब्ध करवा देता है। इस कार्य को करते हुए आपको लंबा वक्त हो गया है, अभी तक विभिन्न धर्म के कई हजार लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं वह भी बिना किसी से किसी प्रकार की मदद लिए। लावारिस लाशों के मसीहा के रूप में विख्यात इस देव पुरुष के अतुल्य कार्य को देखते हुए वर्ष 2019 में भारत सरकार ने शरीफ चाचा को पद्मश्री दिए जाने की घोषणा की है।