बात सन 2005 ईस्वी की है जर्मनी के एक होटल में अपने दोस्तों संग खाना खाने के दौरान एक महाशय सामान्य व्यवहार बस विभिन्न प्रकार के व्यंजनों का आर्डर दिए जो खा सके खाए फिर जो न नहीं खा सके उसे छोड़ दिए। जैसा कि आमतौर पर प्रायः अधिकांश भारतीय करते हैं और बिल चुका कर चलने को उठ खड़े हुए कि वहीं पास में बैठी कुछ महिलाएं यह नजारा देख रही थी। वह आपस में भुनभुना रही थी, कुछ देर बाद महिलाएं अपनी भाषा में अपशब्दों का प्रयोग भी करने लगी। बात यहीं समाप्त हो जाती तब भी ठीक था वह महिलाएं उन महाशय से उलझ गई तथा इस बात को लेकर काफी नाराज हो गई कि आपने टेबल पर खाना क्यों छोड़ा जो व्यार्थ हो जाएगा ।महिलाओं की नाराजगी को दूर करने के लिए उन महाशय ने अत्यंत विनम्र भाव से यह समझाने का प्रयास किया कि मैंने उसे संपूर्ण खाने का बिल चुकता कर दिया है जिसे मैंने खाया और जिसे नहीं खाया उसका भी। उन्होंने सोचा था इतना कहने से बात समाप्त हो जाएगी लेकिन यह कहने से कि मैंने संपूर्ण खाने का बिल चुकता कर दिया है वह और भी भड़क गई। दरअसल उन महिलाओं का कहना था कि जो खाना बिना खाए ही छोड़ दिया और बर्बाद कर दिया है वह किसी और भूखे का पेट भर सकता था। उन्होंने कहा कि आपने एक जुर्म किया है और आपको इसकी सजा भी मिलनी चाहिए इतना कहते हुए उन्होंने फोन करके होटल का स्टाफ तथा पुलिस भी बुला ली और उन महाशय को $200 का जुर्माना अदा करना पड़ा।
इस घटना ने उन महाशय को नाराज करने की बजाय अंदर से झकझोर कर रख दिया और मन में यह ख्याल आया कि देश के नागरिक अपनी छोटी-छोटी जिम्मेदारियों को इस तरह समझें तब कोई समाज कोई देश आगे बढ़ता है तथा विकसित देश की पंक्ति में खड़ा होता है। इस घटना ने जिस व्यक्ति के जीवन पर जो अमिट छाप छोड़ी वह व्यक्ति कोई और नहीं हमारे देश के शीर्षस्थ उद्योगपति श्री रतन नवल टाटा (Ratan Naval Tata) जी थे। तब से उस घटना को आप कभी नहीं भूलते और सदैव अन्न के एक-एक दाने को ईश्वर के प्रति रूप के रूप में देखते हैं। जिस आयु में बच्चे देश दुनिया की ककरिली पथरीली राहों से अनजान दोस्तों की अलमस्त टीम में मगन ,बात बात में माता-पिता से रूष्ट और संतुष्ट होना और माता के स्नेहिल स्पर्श से ही अपने को संसार का सबसे संपन्न तथा सुखी इंसान मानते हैं, जिस बालपन की अवस्था में न धन की चिंता न समाज की और न जगत चिंता। मिट्टी के चंद खिलौने ही अनमोल रत्न हुआ करते हैं उस उम्र में प्रत्येक बच्चे का सब कुछ उसके माता-पिता होते हैं, उसी उम्र में श्री रतन नवल टाटा के पिता श्री नवल टाटा तथा मां सोनूकाम सरियात के बीच अलगाव हो गया। पिता श्री नवल टाटा तथा मां के बीच हुए इस बिलगांव के समय स्वयं रतन टाटा जी की उम्र 10 वर्ष तथा छोटे भाई जिमी की उम्र 7 वर्ष थी ।खुद को मिलने वाले प्यार दुलार प्यार की चिंता छोड़ अब छोटे भाई की चिंता मन में हरदम सवार रहती थी ,यद्यपि पिताजी ने दोबारा साइमन से विवाह कर लिया जिनसे एक और पुत्र नोएल टाटा का जन्म हुआ तथापिआप दोनों भाइयों की देखरेख ,पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी दादी नवाजबाई टाटा जी ने की, वह भी पूरी कुशलता के साथ। दादी ने एक मा से भी बढ़कर देखरेख की तथा पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था की और अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने की मुकम्मल व्यवस्था की ।दादी चाहती थी कि टाटा साम्राज्य का यह भावी वारिस उद्योग उच्च कोटि का उद्योगपति होने के साथ-साथ बेहतरीन इंसान भी बने ।क्योंकि जन्म 28 दिसंबर 1937 में सूरत में हुआ था प्रारंभिक शिक्षा हेतु बालक रतन नवल टाटा का दाखिला मुंबई के कैंपियन स्कूल में कराया गया। माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करने हेतु थे डल एंड स्कूल में भेजा गया प्रारंभ से ही तेज दिमाग के मालिक आप उच्च शिक्षा हेतु कार्नेल विश्वविद्यालय भेजे गए। वहां से 1962 में आपने आर्किटेक्ट डिग्री ग्रहण की तदुपरांत 1975 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से आपने एडवांस बिजनेस प्रोग्राम की डिग्री प्राप्त की।
शिक्षा ग्रहण करने के उपरांत शुरुआत में लास एंजिल्स कैलिफोर्निया, जोंस आज में कुछ समय तक कार्य किया। टाटा ग्रुप में शुरुआत में टाटा स्टील में शाप फ्लोर पर भी काम किया। आपकी कार्यकुशलता के उपयोग का वास्तविक समय तथा जीवन पथ पर असाधारण योग्यता के साथ प्रगति करने की शुरुआत वर्ष 1971 से शुरू होती है जब आपको नेलको का निदेशक नियुक्त किया गया उस समय बाजार में नेलकों की हिस्सेदारी 2% थी तथा घाटा बिक्री 40% थी जो चिंतनीय थी ।उस समय टाटा समूह के मुखिया देश के लिए सम्मानीय नाम आदरणीय जेआरडी टाटा जी थे जिन्हें आपने यह सुझाव दिया कि कंपनी का निवेश उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक इलेक्ट्रॉनिक्स के बजाए उच्च प्रौद्योगिकी में होना ज्यादा उचित रहेगा जिसे श्री जेआरडी टाटा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। आप की अथक मेहनत और कुशल निर्देशन के चलते 1972 से 75 के बीच नेल्को की हिस्सेदारी बढ़कर 20% हो गई और घाटा भी पूरा हो गया ।अपनी सूझबूझ का आपने स्पष्ट प्रमाण दिखा दिया था। अपनी विशिष्ट कार्यशैली के चलते धीरे-धीरे आप टाटा समूह के अध्यक्ष एवं पूज्य चाचा श्री जेआरडी टाटा जी की आंखों का तारा बनते चले गए। प्रारंभ में कुछ लोग आपकी कार्यशैली पर असहमत थे लेकिन अध्यक्ष जी का आपने भरपूर विश्वास जीतने में कामयाबी दिखाई।आपकी अद्भुत मेहनत ,समय और तकनीक पर पैनी दृष्टि ,कार्य करने का अलग अंदाज तथा समर्पण की साहसिक योग्यता को देखते हुए श्री जेआरडी टाटा ने 1981 में आपको टाटा ग्रुप का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया लेकिन यह जिम्मेदारी आपने 10 वर्ष की और कठिन तपस्या के बाद 1991 में ग्रहण की ।देश के सबसे बड़े औद्योगिक समूह का मालिक होने के बावजूद मानवता की सेवा ,कल्याणकारी कार्यों में अपने को समर्पित रखना तथा मानवीय मूल्यों के लिए रहना आप अपना मूल एवं प्रथम कर्तव्य मानते हैं ।आपके 65% से अधिक शेयर दान संबंधित संस्थाओं में निवेश किए गए हैं। आपका कहना है कि व्यापार का अर्थ सिर्फ मुनाफा कमाना नहीं है बल्कि समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भी समझना है और व्यापार में सामाजिक मूल्यों का भी समावेश होना चाहिए ।आज कोई भी क्षेत्र नहीं है जहां टाटा समूह की उपस्थिति न दिखाई देती हो चाहे वह संचार क्षेत्र हो, इंजीनियरिंग हो ,ऊर्जा, उपभोक्ता संबंधी या सेवा क्षेत्र हो प्रत्येक क्षेत्र में अपनी विशिष्ट और ताकतवर मौजूदगी के साथ टाटा समूह जनमानस में रचा बसा है। देश में पहली बार एयरलाइंस की सुविधा उपलब्ध कराने वाले आदरणीय श्री जेआरडी टाटा ही थे। आज विश्व के लगभग लगभग 80 देशों में टाटा समूह का कारोबार फैला है जिसमें लगभग 395000 व्यक्ति काम करते हुए शानदार जीवन यापन कर रहे हैं। दरअसल अपने कर्मचारियों की इस शानदार जीवनशैली के लिए आदरणीय श्री रतन नवल टाटा का यह वाक्य आधारस्तंभ है कि लोगों की सेवा करने के लिए व्यवसायियों को अपनी कंपनियों के हितों से ऊपर जाने की जरूरत है। टाटा समूह को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाने के बाद आपके मन में समूह के अध्यक्ष से अवकाश ग्रहण करने का ख्याल आया ।अपने 75 वें जन्मदिन पर आपने रिटायर होने की घोषणा भी कर दी ।अविवाहित होने के नाते अवकाश के उपरांत आप शान शौकत से दूर मुंबई के कोलाबा जिले में एक जीवंत महापुरुष की तरह जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं एवं दीप्तिमान तारे की तरह समाज को आलोकित करते हुए आधार स्तंभ बन भारत की आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कीर्ति पताका फहरा रहे हैं।